छुपा के सीने में इस दर्द को
हम जी सकते अगर तो कितना अच्छा होता
भुलाकर तुम्हें
आगे देखकर
हम जी सकते अगर तो कितना अच्छा होता!
भूली बिसरी बन जातीं वो यादें
बन सकतीं अगर तो कितना अच्छा होता
पाकर के भी जिन्हें
हम पा न सके वो लम्हे
गर मिल जाते हमें तो कितना अच्छा होता!
वो कश्मकश आवाज जिसे सुनने को हम पागल थे
सुन सकते अगर फिर से तो कितना अच्छा होता
मदभरी सी वो आखें जिनमें थे सैलाब बड़े बड़े
गर डूब जाते हम उसमें तो कितना अच्छा होता!
जैसे आज हमें वो याद नहीं करते
हम भी भूल जाते उन्हें
तो कितना अच्छा होता
पाकर के वफ़ा किसी दूजे की
हम भी बेवफा हो जाते तो कितना अच्छा होता!!
PS: The special thing about this poem is that I wrote it when I may be 17-18 year old and didn't know that I could write. Found it in an old journal yesterday and now publishing it on e-world.